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सांवैधानिक विचारधारा को पूर्णतः समर्पित न्यू प्रबुद्ध भारत कैलेंडर का जनपद रायबरेली में शानदार विमोचन और वितरण.… इस कैलेंडर में रायबरेली और लखनऊ सहित देशभर के सहयोगियों का बहुत बड़ा योगदान है, हमारे घरों में हमारी विचारधारा का कैलेंडर अपने महापुरुषों के त्याग और संघर्ष से रुबरु कराते हुए समाज को सम्यक रास्ता बताता है .… रायबरेली सहित पूरे देश की टीम का बहुत बहुत साधुवाद.…🙏🏻💐🫡
वी.पी. सिंह, भारत के पूर्व प्रधानमंत्री (25 जून, 1931- 27 नवंबर, 2008) एक साल से कम समय तक भारत के 8वें प्रधानमंत्री (02 दिसम्बर 1989 से 10 नवम्बर 1990) और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री रह चुके विश्वनाथ प्रताप सिंह एक ऐसा नाम है, जिसको सुनते ही आज भी भारत के गैर-समानतावादियों और गैर-पिछङों का खून जल जाता है। साहब कांशीराम ने मण्डल आंदोलन द्वारा पूरे देश की पिछड़ी जातियों की भागीदारी का सवाल पहली बार राजनैतिक पटल पर बङे राजनेताओं और जनता के सामने उठाया गया था। बहुजन नायक मा. कांशीराम साहब (ऐतिहासिक भाषण, खण्ड -7 “मण्डल-कमण्डल के दौर में किये गए उनके संघर्ष और विचारधारा”) को और भी बेहतर समझने के लिए, एक बहुत ही महत्वपूर्ण दस्तावेज है। हालांकि इस भाषण और उनके संघर्ष व विचारधारा को भारत के सभी नागरिकों को जानने की आज बहुत आवश्यकता है, किंतु मा. कांशीराम साहब का यह ऐतिहासिक भाषण, (खण्ड -7) हम पिछड़ों, अल्पसंख्यकों के लिए खास मायने रखता है और इसे हमें ज़रूर पढ़ना चाहिए। स्वतंत्र भारत के इतिहास में वी.पी. सिंह जी के अतिरिक्त कोई अन्य ऐसा.. नहीं दिखा, जो इस तरह का निर्णायक कदम उठा सके, हालांकि तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियां और कई पिछङे राजनेताओं की भी इसमें अहम भूमिका थी। सामाजिक न्याय की दिशा में उन्होंने मंडल कमीशन की सिफारिशों को देश में लागू कराया, वी. पी. सिंह के इस फैसले से समाज के अन्य पिछङे वर्ग को भी सरकारी नौकरियों में संवैधानिक आरक्षण मिला, जिससे पिछड़े समुदाय की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दिशा-दशा बदल गई। वहीं, दूसरी ओर इसी फैसले की वजह से वह विभाजनकारी व्यक्तित्व भी साबित किए गए। मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने को लेकर लोग आक्रोशित भी हुए और मंडल कमीशन के खिलाफ देश भर में आंदोलन भी। *एक समय जो लोग वी. पी. सिंह को नायक की भूमिका में देख रहे थे, वही लोग उन्हें खलनायक की तरह देखने लगे। उनका विरोध करने वाले मानते हैं कि उन्होंने अपने राजनीतिक स्वार्थ साधने के लिए मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू किया था। विडंबना देखिए, इसी बात के लिए गैर-पिछङों ने उन्हें कभी माफ नहीं किया और पिछङों ने उन्हें याद करना भी मुनासिब नहीं समझा।* इन सबके बावजूद वी. पी. सिंह जी ने अपने राजनीतिक जीवन में विवादों की तमाम पृष्ठभूमि के बीच वह इतिहास लिख दिया, जिन्हें हम-आप पसंद करें या ना करें, पर नज़रअंदाज़ तो बिल्कुल नहीं कर सकते। मंडल कमीशन को जमीन पर विधिक तरीके से लागू करने वाले, सामाजिक न्याय के समर्थक, विश्वनाथ प्रताप सिंह जी के स्मृति दिवस 27 नवम्बर पर नमन 💐🙏 लेखक- महेश कुमार गौतम, लखनऊ
जिसका सहारा मिलता है, उससे इशारा भी मिलता है’ – मान्यवर कांशीराम
■ भारत विविधताओं का देश है, भारतीय लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहे जाने वाले किसी मीडिया को भारत के संविधान पर कभी विस्तार से कोई समाचार बनाते नहीं देखा गया? हां लेकिन अन्धविश्वास की बातें करते बहुत बार देखा जाता है। भारत के हर कोने में कहीं न कहीं आज भी अन्धविश्वास्, पाखंडवाद, पूंजीवाद, जातिवाद अभी भी मौजूद है? इतने सारे दुश्मनों के होने पर भी ये संविधान की महानता है कि अभी भी संविधान मजबूत खड़ा है। संविधान दिवस के पावन पर्व पर संविधान और संविधान निर्माता विश्वरत्न बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर को नमन व आप सभी को शुभकामनायें। जय भीम, जय भारत, जय संविधान ■
दीनबंधु सर छोटूराम जी (24 नवंबर, 1881-09 जनवरी, 1945) दीनबंधु सर छोटूराम जी दहेज प्रथा, बाल विवाह, बहु विवाह, सांप्रदायिकता, अंधविश्वास, निरक्षरता, छुआछूत व जाति भेदभाव के खिलाफ थे। वह लैंगिक न्याय, समानता और पुनर्विवाह के कट्टर समर्थक थे। सर छोटूराम ने आज से 100 वर्ष पहले ऐसी सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था की कल्पना की थी कि गांव व शहर के आर्थिक अंतर कम हों, धर्म का राजनीति में दखल न होना, किसानों को फसलों का उचित दाम मिलना, सामाजिक भाईचारा मजबूत हो, छुआछूत की समाप्ति तथा शिक्षा का अधिकार सभी देशवासियों को मिलना, आज की वर्तमान राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों में सर छोटूराम जी की सोच प्रासंगिक है।* सर छोटूराम का जन्म आज ही के दिन 24 नवम्बर, 1881 में झज्जर के छोटे से गाँव गढ़ी सांपला में बहुत ही साधारण किसान बहुजन(ओबीसी-जाट) परिवार में हुआ था(झज्जर तब रोहतक जिले का ही अंग था)। उस समय रोहतक पंजाब का भाग था। उनका वास्तविक नाम राम रिछपाल था। वह अपने भाइयों में से सबसे छोटे थे, इसलिए परिवार के लोग इन्हें छोटू कहकर पुकारते थे। स्कूल के रजिस्टर में भी इनका नाम छोटू राम ही लिखा दिया गया था और बाद में यह महापुरुष सर छोटूराम के नाम से ही विख्यात हुए। उनके दादा रामरत्न जी के पास कुछ बंजर जमीन थी, जिस पर उनके पिताजी सुखीराम जी किसानी करते थे, पर वह कर्जे और मुकदमों में बुरी तरह से फंसे हुए थे। फिर भी वह क्या करते, उनके परिवार को किसानी के अलावा और किसी चीज़ का सहारा नहीं था। एक बार उनके पिताजी व छोटूराम एक साहूकार के पास पैसे लेने के लिए घर पहुंचे। साहूकार लाला ने छोटूराम के पिता को अपना पंखा खींचने का आदेश दिया। इस पर बालक, किंतु स्वाभिमानी व संस्कारी, छोटूराम का मन तिलमिला गया और उन्होंने साहूकार से कहा कि तुम्हें लज्जा नहीं आती कि अपने लड़के के बैठे हुए भी तुम पंखा खींचने के लिए उससे न कह कर मेरे बूढ़े पिता से पंखा खिंचवाते हो। इस घटना ने उनके जीवन की दिशा व सोंच को ही बदल डाला। उन्होंने कृषक व मजदूरों के शोषण एवं उत्पीड़न को समाप्त करने का संकल्प लिया। उन्होंने कड़ी मेहनत कर उच्च शिक्षा प्राप्त की। कानून में डिग्री करने के पश्चात उन्होंने आगरा में वकालत शुरू की। वर्ष 1905 में उन्होंने दिल्ली के सैंट स्टीफंस कॉलेज से ग्रेजुएशन किया। आर्थिक हालातों के चलते उन्हें मास्टर्स की डिग्री छोड़नी पड़ी, उन्होंने कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह जी के सह-निजी सचिव के रूप में कार्य भी किया और यहीं पर वर्ष 1907 तक अंग्रेजी के हिन्दुस्तान समाचार-पत्र का संपादन किया। उन्होंने वर्ष 1916 में उन्होंने रोहतक कोर्ट में वकालत शुरू की। वकीलों का व्यवहार मुवक्किलों के प्रति अच्छा नहीं था। उनको कुर्सी व मूढ़ों पर बैठने की इजाजत नहीं थी। उन्होंने इस परंपरा का विरोध ही नहीं, बल्कि अपने चेंबर में कुर्सी व मूढ़ों का प्रबंध भी किया। उन्होंने वकालत के साथ-साथ आम जनता की सामाजिक व आर्थिक समस्याओं को सुना ही नहीं, बल्कि उनके समाधान के लिए भी संघर्ष करना शुरू कर दिया। सर छोटूराम ने पंजाब में लगभग 26 हजार नौजवानों को ब्रिटिश फौज में भर्ती कराने का काम किया। उनका कहना था कि स्वराज्य केवल अहसहयोग या जंग से नहीं प्राप्त किया जा सकता, बल्कि संवैधानिक तथा नीतिगत मार्ग भी स्वराज्य प्राप्ति का साधन हो सकता है तथा असहयोग आंदोलन के दौरान सरकारी स्कूलों का बहिष्कार उचित नहीं है। तत्कालीन पंजाब में निजी व सरकारी स्कूल नाम मात्र ही थे। देश में जिन किसानों ने असहयोग आंदोलन में भाग लिया था, उनकी फसलों को जला दिया गया। सर छोटूराम ने इन सभी कारणों को ध्यान में रखते हुए असहयोग आंदोलन का विरोध कर कांग्रेस से भी अलविदा कह दिया। सर छोटूराम का गांधीजी से कई मुद्दों पर मतभेद थे। सर छोटूराम देश में किसानों की दुर्दशा से भली-भांति परिचित थे। इसलिए उन्होंने वर्ष 1915 में ‘जाट-गजट’ नामक अख़बार शुरू किया। इसके माध्यम से उन्होंने ग्रामीण जनजीवन का उत्थान और साहूकारों द्वारा गरीब किसानों के शोषण पर क्रांतिकारी लेख लिखे। किसानों के हितों के लिए लिखे ‘ठग बाज़ार की सैर’ और ‘बेचारा किसान’ जैसे उनके कुल 17 लेख “जाट गजट” में छपे, जिन्होंने किसान उत्थान के दरवाजे खोले। वह अंग्रेजी अफसरों के अत्याचारों के खिलाफ़ न तो बोलने से डरते थे और न ही लिखने से। इससे पूरे देश में उनकी शख़्सियत के चर्चे होने लगे थे। सर छोटूराम ने 1921 से जनवरी, 1945 तक पंजाब विधान परिषद का सदस्य बनकर शिक्षा व ग्रामीण, खेती व राजस्व मंत्री के रूप में सेवाएं दी। उनका स्वतंत्रता, समानता तथा न्याय में अटूट विश्वास था। वह सत्ता को सुख भोगने के लिए नहीं, बल्कि आम जनता के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक उत्थान का माध्यम समझते थे। सर छोटूराम ने इस दिशा में पंजाब में कई कानून बनवाए। इन कानूनों का मुख्य उद्देश्य था कि किस प्रकार किसानों, मजदूरों व नौजवानों को कर्ज मुक्त जीवन मिले तथा उनका सामाजिक व आर्थिक विकास हो। खेती के उत्पादन को बढ़ाने के लिए उन्होंने पुरानी नहरों की साफ-सफाई तथा नई नहरों का निर्माण भी करवाया और भाखड़ा डैम का ब्लूप्रिंट भी तैयार किया। भाखड़ा-नंगल बांध सर छोटूराम जी की ही देन है। उन्होंने ही भाखड़ा बांध का प्रस्ताव पहली बार रखा था, पर सतलुज के पानी पर बिलासपुर के राजा का अधिकार था, तब सर छोटूराम ने ही बिलासपुर के राजा के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। बाद में उनके इस प्रोजेक्ट को बाबा साहब डाॅ. भीमराव अम्बेडकर जी ने आगे बढ़ाया था। वह ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत के एक प्रमुख राजनेता एवं विचारक थे। उन्होने भारतीय उपमहाद्वीप के ग़रीबों के हित में काम किया। इस उपलब्धि के लिए, उन्हें वर्ष 1937 में ‘नाइट’ की उपाधि दी गई थी।ब्रिटिश सरकार ने वर्ष 1927 में उन्हें “राय बहादुर” का खिताब दिया और वर्ष 1937 में वह सर छोटू राम की उपाधि से विभूषित हुए। *आज बहुत कम लोगों को पता होगा कि तीन महान शख्सियतों में से एक सर छोटू राम भी थे, जिन्होंने साइमन कमीशन का भारत में जोरदार स्वागत किया था। इन तीन बहुजन शख्सियतों के नाम थे- सर छोटूराम जी, जो पंजाब से थे, बाबा साहब डॉ. बी. आर. अम्बेडकर जी, जो महाराष्ट्र से थे और शिव दयाल चौरसिया जी, जो उoप्रo से थे। ऐसे में हमें साइमन कमीशन की वास्तविकता को जरूर जानना-समझना चाहिए। कहा जाता है कि साइमन का स्वागत करने के लिए सर छोटूराम जी ने एक दिन पहले ही लाहौर के रेलवे स्टेशन पर जाकर साइमन कमीशन का स्वागत किया था।* सर छोटूराम ने सामाजिक बुराइयों दहेज प्रथा, बाल विवाह, बहु विवाह, अनियंत्रित जनसंख्या, सांप्रदायिकता, अंधविश्वास, निरक्षरता, नैतिक मूल्यों की कमी, छुआछूत व जाति भेदभाव के खिलाफ कई जन आंदोलन भी किए। वह लैंगिक न्याय, समानता और पुनर्विवाह के कट्टर समर्थक थे। सर छोटूराम की 02 बेटियां थी और उन्होंने उस समय उनको अच्छी शिक्षा देकर समाज को यह संदेश दिया कि लड़का और लड़की में कोई अंतर नहीं है। दिनांक 09 जनवरी, 1945 को सर छोटूराम जी ने अपने जीवन की अंतिम सांस ली थी। वह स्वयं तो चले गये, पर उनके लेख व कार्य आज भी देश की अमूल्य विरासत बनकर समाज को एक सकारात्मक दिशा दे रहे हैं। किसानों के इस नेता ने जो लिखा वह आज भी देश और समाज की व्यवस्था पर लागू होता है। उन्होंने अपने एक लेख में लिखा था कि-“मैं राजा-नवाबों और भारत की सभी प्रकार की सरकारों को कहता हूँ, कि वह किसान को इस कदर तंग न करें कि वह उठ खड़ा हो…. दूसरे लोग जब सरकार से नाराज़ होते हैं, तो कानून तोड़ते हैं, पर जब किसान नाराज़ होगा, तो कानून ही नहीं तोड़ेगा, सरकार की पीठ भी तोड़ेगा।” राजनीतिक चिंतकों का मत था कि यदि सर छोटूराम जीवित होते तो पंजाब का बंटवारा न हो पाता। सर छोटूराम ने आज से 100 वर्ष पहले ऐसी सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था की कल्पना की थी कि गांव व शहर के आर्थिक अंतर कम हो, धर्म का राजनीति में दखल न होना, फसलों का उचित दाम मिलना, सामाजिक भाईचारा मजबूत हो, छुआछूत की समाप्ति तथा शिक्षा का अधिकार सभी देशवासियों को मिलना, आज की वर्तमान राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों में धरतीपुत्र सर छोटूराम जी की सोच प्रासंगिक है। दीनबंधु सर छोटू राम जी के जन्म दिवस 24 जनवरी पर कृतज्ञतापूर्ण नमन💐🙏 लेखक; महेश कुमार गौतम, लखनऊ
बाबा साहब की पत्रकारिता “जनता-पत्र”-24 नवंबर, 1930 ‘समता’ पत्र बन्द होने के बाद बाबा साहब डॉ.भीमराव अम्बेडकर जी ने इसका पुनर्प्रकाशन ‘जनता’ के नाम से किया था। इसका पहला प्रवेशांक आज ही के दिन 24 नवम्बर, 1930 को आया था और यह फरवरी 1956 तक कुल 26 साल तक चलता रहा। इस पत्र के माध्यम से डा. अम्बेडकर ने बहुजन समस्याओं को उठाने और बहुजनों को को जाग्रत करने का बखूबी कार्य किया।
बाबू गंगाराम धानुक (13 अप्रैल, 1893-19 नवम्बर, 1972) स्वाधीनता आन्दोलन में अनगिनत “हम भारत के लोगों” को जानें गवानी पड़ीं। जिस बहुजन समाज में सुपंच, पन्नाधाय, एकलव्य जैसे महापुरुष जन्में उसी बहुजन समाज में 13 अप्रैल, 1893 को जसवंत नगर क्षेत्र के ग्राम चकवा बुजुर्ग में बाबू गंगाराम धानुक जी का जन्म हुआ था। आपकी प्राथमिक शिक्षा बसेहर तथा इटावा में हुई। उन्हें मिडिल कक्षा के उपरांत कुछ समय गांव में रहना पड़ा। अपने पिताजी को गाँव के ही जमींदार के यहां काम करते देख उन्हें आत्म ग्लानि होती थी। उन्होंने अपने पिताजी से अपने परिवेश एवं रिवाजों को बदलने हेतु कई बार आग्रह किया। इस बात की भनक जब उनके जमींदार को लगी, तो उसने उनके पिता छेदालाल जी को तलब कर चेतावनी भरे लहजे में कहा कि अपने बेटे गंगाराम को इस गाँव से बाहर करो। जमींदार का हुक्म उन दिनों सिर माथे पर था, फलस्वरूप गंगाराम जी को अपने गाँव से बाहर जाना पड़ा। कई महीनों बाद माँ कोकिला के आग्रह पर गंगाराम जी जब पुनः अपने गाँव पहुँचे, तब जमींदार को इसकी सूचना मिलने पर वह आग बबूला होकर पूरे परिवार को गांव निकाला कर दिया। पिता छेदालाल जी सपरिवार गांव छोड़कर एक नजदीकी रिश्तेदार के सहयोग से इटावा में रहने लगे और जी रोजगार की तलाश में करांची आकर सेना में भर्ती हो गये। सेना में ही इन्हें पहली बार बाहर जाने का अवसर मिला। उस समय प्रथम विश्व युद्ध (1914) चल रहा था। विश्व युद्ध के उपरान्त करांची से कुछ सैनिकों को फ्रांस भेजा गया, जिसमें गंगाराम जी भी थे, वहाँ फौज कमाडिंग आफिसर ने उनकी रुचि, शिक्षा तथा काबलियत को देखते हुये उनकी पदोन्नति स्टोर सुपर वाइजर (क्वार्टर मास्टर) के पद पर कर दी। वर्ष 1921 में गंगाराम जी पुनः भारत आये और उन्होंने बम्बई में जन जागृति चेतना का संकल्प लेते हुए अपनी नौकरी को त्याग कर बहुजन चेतना का कार्य करने लगे। नौकरी छोड़ने के चार वर्ष तक उन्हें कठोर यातनाएँ सहन करनी पड़ीं। आजादी की लड़ाई में उन्होंने भारत छोड़ों आंदोलन में भी भाग लिया था। वर्ष 1927 में गंगाराम जी का स्वामी अछूतानन्द जी से पहली बार सम्पर्क हुआ। स्वामी अछूतानन्द जी उनके सामाजिक विचारों एवं कार्यों से अत्यंत प्रभावित थे। मद्रास के शोषित सम्मेलन में बाबा साहेब डॉ.भीमराव अंबेडकर जी स्वामी अछूतानन्द जी के विचार सुनकर, बेहद प्रभावित हुए तथा उत्तर भारत में चल रही सामाजिक गतिविधियों की जानकारी उनसे चाही, तो स्वामी अछूतानन्द जी ने गंगाराम जी एवं उनके सामाजिक कार्यों के बारे में उनको अवगत कराया था, तब बाबा साहब ने गंगाराम जी से मिलने की इच्छा जाहिर की थी। बाद में बाबा साहब ने अपने पत्र के माध्यम से स्वामी अछूतानन्द जी को अपने अन्य साथियों सहित दिल्ली बुलाया और उस मुलाकात में उन्होंने गंगाराम जी से उत्तर भारत का नेतृत्व अपने अभिन्न मित्र श्रीनिवासन साथ संभालने को कहा था। बाद में इटावा, फर्रुखाबाद तथा उ.प्र. के अन्य जनपदों में बाबा साहब के सारे कार्यक्रमों की कमान गंगाराम जी ने ही संभाली थी। कई वर्षों तक वह बाबा साहब के विशेष सहयोगी रहे। कुछ घरेलू परिस्थितियों के कारण उनकी कुछ समय तक सामाजिक कार्यों में व्यस्तता कम हो गयी। परिस्थितियां सुधरने पर वह पुनः सामाजिक कार्य में संलग्न हो गये। कांग्रेस के राष्ट्रीय मंचों पर भी उनके व्याख्यान होते थे। बहुजनों के उत्थान कार्यक्रम में वह विहार प्रांत गये, जहां पटना विश्वविद्यालय के तेज तर्रार नवयुवक छात्र बाबू जगजीवनराम जी ने इनको अपना राजनैतिक गुरु स्वीकार किया। बाबू जगजीवन राम जी रक्षा, कृषि, रेल मंत्री तथा अन्य महत्वपूर्ण विभागों पर रहते हुये इटावा में बाबू गंगाराम जी से मिलने आते रहते थे। बहुजनों के उत्थान के लिए आजीवन समर्पित भाव से काम करने वाले गंगाराम जी का आज ही के दिन 19 नवंबर, 1972 को इटावा में निधन हो गया था। यह विडम्बना ही है कि इतिहास और साहित्य में शातिर कलमबद्ध रचनाकारों द्वारा ऐसे व्यक्तित्वों को गुमनाम कर दिया गया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास लेखन में उन्हें नि:संदेह जगह मिलनी चाहिए थी। बहुजन समाज के ऐसे गुमनाम कर दिये गये राष्ट्रवादी सामाजिक महापुरुषों को कृतज्ञतापूर्ण नमन💐🙏
धरती आबा-जननायक बिरसा मुंडा (15 नवंबर, 1875 – 09 जून, 1900) आज 15 नवंबर को “अबुआ दिसुम-अबुआ राज” (हमारे देश में हमारा राज) के प्रणेता जननायक बिरसा मुंडा जी, जिन्हें “धरती आबा” के नाम से भी जाना जाता है – का जन्म दिवस है। भारत में ज़मींदारी व्यवस्था लागू कर मूलनिवासियों के वह गांव, जहां आदिवासी कहे जाने वाले भारत के मूलनिवासी सामूहिक खेती किया करते थे, ज़मींदारों, दलालों में बांटकर, राजस्व की नयी व्यवस्था लागू की गयी, इसके विरुद्ध बड़े पैमाने पर लोग आंदोलित हुए और उस अव्यवस्था के ख़िलाफ़ उस समय विद्रोह शुरू हो गये थे। बिरसा मुंडा जी को उनके पिता ने मिशनरी स्कूल में भर्ती किया था, पर आदिवासी समुदाय के बारे में शिक्षक की टिप्पणी के विरोध में सवाल उठाने पर उन्हें स्कूल से बाहर निकाल दिया गया था। बिरसा ने कुछ ही दिनों में यह कहकर कि ‘साहेब-साहेब एक टोपी है’ स्कूल से नाता तोड़ लिया। वर्ष 1890 के आसपास जो मूल निवासी किसी महामारी को दैवीय प्रकोप मानते थे, उनको वह महामारी से बचने के उपाय समझाते। मुंडा आदिवासी हैजा, चेचक, सांप के काटने, बाघ के खाए जाने को ऊपर वाले की मर्ज़ी मानते, बिरसा उन्हें सिखाते कि चेचक-हैजा से कैसे लड़ा जाता है। बिरसा इन सबके अब “धरती आबा” यानी धरती पिता हो गए थे। धीरे-धीरे बिरसा का ध्यान मुंडा समुदाय की ग़रीबी की ओर गया। आज की तरह ही आदिवासियों का जीवन तब भी अत्यंत अभावों से भरा हुआ था। न खाने को भात था, न पहनने को कपड़े। एक तरफ ग़रीबी थी और दूसरी तरफ उनके जंगल अनवरत जबरन छीने जा रहे थे। जो जंगल के मूलतः दावेदार थे, वही जंगलों से बेदख़ल किए जा रहे थे, यह देख बिरसा ने हथियार उठा लिए और फिर शुरू हुआ-“उलगुलान” इतिहासकार प्रायः उलगुलान का अर्थ विद्रोह से लगाते हैं, किंतु वास्तविक रूप में यह बाहरियों द्वारा जल, जंगल और जमीन पर कब्जे के विरोध में छेड़ा गया एक युद्ध था। 05 जनवरी, 1900 तक पूरे मुंडा अंचल में “उलगुलान” की चिंगारियां फैल गयी थीं। 09 जनवरी, 1900 का दिन मुंडा इतिहास में तब अमर हो गया, जब डोम्बारी बुरू पहाडी पर अंग्रेजों से लडते हुए सैंकड़ो मुंडाओं ने अपनी शहादत दी थी। कई मुंडाओं को गिरफ्तार किया गया, इनमें से 02 को फांसी, 40 को आजीवन कारावास, 06 को चौदह वर्ष की सजा, 03 को चार से छह बरस और 15 अन्य को तीन बरस की जेल हुई। अंग्रेजों और जमींदारों को लगा कि उलगुलान अब समाप्त हो गया है। मगर उलगुलान की अंतिम और निर्णायक लड़ाई जनवरी, 1900 में ही रांची के पास डोम्बारी पहाड़ी पर हुई थी। हजारों की संख्या में आदिवासी बिरसा आबा के नेतृत्व में लड़े। संख्या और संसाधन सीमित होने की वजह से बिरसा ने छापामार लड़ाई का सहारा लिया। रांची और उसके आसपास के इलाकों में पुलिस उनसे आतंकित थी। अंग्रेजों ने उन्हें पकड़वाने के लिए पांच सौ रुपये का इनाम रखा था, जो उस समय बहुत बड़ी रकम थी। बिरसा मुंडा और अंग्रेजों के बीच अंतिम और निर्णायक लड़ाई वर्ष 1900 में रांची के पास दूम्बरी पहाड़ी पर पुनः हुई। हज़ारों की संख्या में मुंडा आदिवासी बिरसा के नेतृत्व में लड़े, पर तीर-कमान और भाले कब तक बंदूकों और तोपों का सामना करते। अंततः भारत के यह मूल लोग बेरहमी से मार दिए गए। 25 जनवरी, 1900 में स्टेट्समैन अखबार के मुताबिक इस लड़ाई में 400 लोग मारे गए थे। 03 फरवरी, 1900 को सेंतरा के पश्चिम जंगल के काफी भीतर बिरसा को सोते समय में पकड़ लिया गया। गिरफ्तारी की सूचना फैलने के पहले ही उन्हें खूंटी के रास्ते रांची लाया गया। उनके खिलाफ गोपनीय ढंग से मुकदमे की कार्रवाई की गयी और उन पर सरकार से बगावत करने, आतंक व हिंसा फैलाने के आरोप लगाये गये। मुकदमे में उनकी ओर से किसी प्रतिनिधि को हाजिर नहीं होने दिया गया। जेल में उनको अनेक प्रकार की यातनाएं दी गयीं। 20 मई को उनका स्वास्थ्य खराब होने की सूचना बाहर आयी और 01 जून को उनको हैजा होने की सूचना फैली। अंततः 09 जून की सुबह जेल में ही उनकी मृत्यु हुई। वास्तव में यह मृत्यु बिरसा मुंडा जी की नहीं, बल्कि आदिवासी मुंडाओं के ‘भगवान’ की थी। बिरसा की शहादत के बाद उलगुलान समाप्त होने के साथ ही हुकूमत को चौकन्ना भी कर गया। उसे यह एहसास हो गया कि झारखंड क्षेत्र में सांस्कृतिक स्तर पर आदिवासी चेतना का पुनर्जागरण कभी भी सिर उठा सकता है, इसलिए उसने भूमि संबंधी समस्याओं के समाधन के प्रयास शुरू कर दिये। उलगुलान के गढ़ माने जाने वाले तमाम क्षेत्रों में भूमि बंदोबस्ती का कार्य शुरू हुआ। काश्तकारी संशोधान अधिनियम के जरिये पहली बार खुंटकट्टी व्यवस्था को कानूनी मान्यता दी गयी। भूमि अधिकार के अभिलेख तैयार कर बंदोबस्त की वैधनिक प्रक्रिया चलाने और भू-स्वामित्व के अंतरण की व्यवस्था को कानूनी रूप देने के लिए छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम, 1908 बनाया गया। इसमें उन तमाम पुराने कानूनों का समावेश किया गया, जो पिछले 25 – 30 सालों में भूमि असंतोष पर काबू पाने के लिए समय-समय पर लागू किये गये थे। उनमें 1879 का छोटानागपुर जमींदार और रैयत कार्यवाही अधिनियम, और 1891 का लगान रूपांतरण अधिनियम शामिल हैं। नये और समग्र अधिनियम में खुंटकट्टीदार और मुंडा खुंटकट्टीदार काश्तों को सर्वमान्य कानूनी रूप देने का प्रयास किया गया। कानून में यह आम व्यवस्था की गयी कि खुंटकट्टी गांव-परिवार में परंपरागत भूमि अधिकार न छीने। किसी बाहरी व्यक्ति द्वारा जमीन हड़पे जाने की आशंका को खत्म करने के लिए डिप्टी कमिश्नर को विशेष अधिकार से लैस किया गया। कानून के तहत ऐसे बाहरी व्यक्ति को पहले उस क्षेत्र से बाहर निकालने का प्रावधान किया गया। मुंडा-मुंडा के बीच भूमि अंतरण की छूट और मुंडा व बाहरी व्यक्ति के बीच भूमि हस्तांतरण पर प्रतिबंध के लिए कई नियम बने। हुकूमत ने उस कानून को अमलीजामा पहनाने के लिए प्रशासनिक स्तर पर भी कई तब्दीलियां कीं। 1905 में खूंटी अनुमंडल बना और 1908 में गुमला अनुमंडल बना ताकि न्याय के लिए आदिवासियों को रांची तक की लम्बी यात्रा न करनी पड़े। इस बहाने क्षेत्र में स्वशासन की जनजातीय प्रणाली को ध्वस्त कर ब्रिटिश हुकूमत ने प्रशासन का अपना तंत्र कायम किया। मगर इतिहास गवाह है कि बिरसा की शहादत के बाद झारखंड क्षेत्र में जितने भी विद्रोह और आंदोलन हुए, उन सबके लिए बिरसा जी का आंदोलन सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण पैमाना बना। जून का महीना हम बहुजनों के लिए विशेष महत्व रखता है। जून के महीने की 09 तारीख को हम भारत के लोग कृतज्ञतापूर्वक जननायक बिरसा मुंडा जी की शहादत को याद करते हैं और 30 जून हूल विद्रोह की वर्षगांठ का दिन है। धरती आबा जननायक “बिरसा मुंडा जी” के जन्म दिवस 15 नवंबर पर उन्हें कृतज्ञतापूर्ण नमन 💐🙏 लेखक; महेश कुमार गौतम, लखनऊ
क्रांतिगुरु-लहूजी राघोजी साल्वे – (ज्योतिबा फुले जी के गुरू) (14 नवंबर, 1794-17 फरवरी, 1881) वर्ष 1848 में राष्ट्रमाता सावित्रीबाई फूले जी का पहला बालिका स्कूल लहूजी के संरक्षण में ही खोला गया था। महामना ज्योतिबा फुले जी के गुरु-उस्ताद लहूजी ने ही उन्हें अपने अखाड़े में प्रशिक्षित पहलवान बनाया था। वर्ष 1848 में उस्ताद लहूजी सालवे जी के अखाड़े में ही भारत की पहली महिला शिक्षिका राष्ट्र माता सावित्रीबाई फुले जी द्वारा बालिकाओं की पाठशाला शुरु की गई थी और उस समय उस्ताद लहूजी साल्वे जी और उनके अखाड़े के पांच शिष्य-फुले दम्पत्ति की सामाजिक-जीवन-रक्षा के लिए तैनात हुआ करते थे। उस्ताद लहुजी सालवे जी का जन्म बहुजन समाज की मांग जाति में आज ही के दिन 14 नवम्बर, 1794 महाराष्ट्र के पुरंदर किले के नजदीक पेठ नामक एक गांव में हुआ था। जातिवादी व्यवस्था के कारण इतिहास में लहु जी को विशेष महत्व नहीं दिया गया, इसलिए आज हमें उनका पूरा इतिहास पता नहीं चल पाया है। यह विडम्बना ही है कि लहुजी सालवे जी का नाम, महामना ज्योतिबा फुले जी के साहित्य के अलावा कहीं दिखाई नहीं देता। शिवाजी महाराज के राज्य में लहुजी के पूर्वजों ने युद्ध में अपनी पूर्ण निष्ठा और ईमानदारी के साथ कर्तव्य पालन किया था, इसी कारण शिवाजी महाराज ने सालवे घराने को ‘ राऊत ‘ की पदवी प्रदान की थी। शिवाजी महाराज के हिंदवी राज्य में किला संरक्षण की जिम्मेदारी मातंग समाज के शूरवीरों के ही जिम्मे थी। आज की भाषा में वह सच्चा देशभक्त घराना था। लहुजी के पिता राघोजी सिंह के समान अत्यंत शक्तिशाली व्यक्ति थे, लेकिन पेशवा राज्य में उनका उपयोग सिर्फ हिंसक पशुओं की देखभाल के लिए किया गया ,क्योंकि अछूतों की ताकत अमानवीय जातिवादियों से देखी नहीं जाती थी, वह उन्हें सेना के दूसरे पदों पर नहीं देख सकते थे। लाहूजी साल्वे के पिता राघोजी साल्वे बहुत पराक्रमी व्यक्ति थे, युद्ध की कला में कोई उनका हाथ नहीं पकड़ सकता था।लाहूजी साल्वे के पिता राघोजी साल्वे उस समय एक बाघ से लड़ने में अपने कौशल के लिए प्रसिद्ध थे। एक बार राघोजी साल्वे ने एक बाघ से लड़ाई की और पेशवाओं के दरबार को अपने कंधे पर एक जीवित बाघ के साथ पेश किया और अपनी अपार शक्ति का प्रदर्शन किया। लहुजी ने अपने शूरवीर पिता राघोजी से तलवार चलाना, दांडपट्टा ,भाला फेंक, निशानेबाजी, बंदूक चलाना, घुड़सवारी, पर्वतरोहण, आदि कौशल का सैनिकी प्रशिक्षण प्राप्त किया था। देश का संरक्षण करना उनका एकमात्र उद्देश्य था। विदेशी आक्रमण को रोकना ही वास्तविक स्वातंत्रता संग्राम की शुरुआत थी। वह अंग्रेजों को अपने शहीद पिता का हत्यारा मानते थे, अतः उनके विरुद्ध वे सशस्त्र युवा वर्ग खड़ा कर देना चाहते थे। वर्ष 1822 में उस्ताद लहुजी ने पूना के शनिवारबाड़ा के गंजपेठ इलाके में पहला अखाड़ा शुरू किया था। उस समय उस अखाड़े में मलखंब, तलवार चलाना, बंदूक चलाना, दांडपट्टा, नेमबाजी, गतकाफरी, आदि कौशल का प्रशिक्षण दिया जाता था। इस तरह लहूजी के अखाड़े में स्वतंत्रता आंदोलन के लिए रणबांकुरे तैयार किये जाते थे। उस्ताद लहूजी के इसी अखाड़े से उत्पन्न भारत के अप्रातिम एक क्रांतिकारी और युगपुरुष थे- महामना ज्योतिबा फुले जी। महामना ज्योतिबा फुले जी के गुरु-उस्ताद लहूजी ने ही उन्हें अपने अखाड़े में प्रशिक्षित पहलवान बनाया था। सन् 1848 में उस्ताद लहूजी सालवे जी के अखाड़े में ही भारत की पहली महिला शिक्षिका राष्ट्र माता सावित्रीबाई फुले जी द्वारा बालिकाओं की पाठशाला शुरु की गई थी और उस समय उस्ताद लहूजी सालवे जी और उनके अखाडे के पांच शिष्य-फुले दांपत्य के सामाजिक-जीवन-रक्षा के लिए तैनात हुआ करते थे। 17 फरवरी, 1881 को, लहूजी साल्वे जी का निधन हो गया। क्रांतिवीर लहूजी साल्वे जी का मकबरा आज भी संगमवाड़ी (पुणे) में स्थित है। महान क्रांति-गुरु उस्ताद लहूजी सालवे जी के 228वें जन्म दिवस पर कृतज्ञतापूर्ण नमन..💐 लेखक; महेश कुमार गौतम, लखनऊ
नशा मुक्ति पर महत्वपूर्ण पंक्तियां:- शराब छोड़ो जुआ छोड़ो, शिक्षा को अपनाएंगे। अंधविश्वास और गुलामी को ,घर से दूर भगाएंगे।। गरीबी और अज्ञानता से, पीछा भी छुड़ायैंगे। मान सम्मान से जीने के लिए, शीलों का पालन करायैंगे।। जात-पात के बंधन तोड़ेंगे, बौद्ध धम्म अपनाएंगे। ज्ञान का प्रसार करेंगे, जन-जन तक पहुंचाएंगे।। बुद्ध और बाबा का गुणगान करेंगे, यह संदेश हम घर-घर तक पहुंचाएंगे। यही हम एक काम करेंगे, मानव का मानव से भाईचारा बढ़ाएंगे।। लेखक:- महाराज सिंह मौर्य (शिक्षक) डबरा, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
बहुजन चेतना से लैस सामाजिक परिवर्तन के आंदोलन की आंधी को मज़बूती देने जल्द आ रहा है… New प्रबुद्ध भारत कैलेंडर-2025
#आम_सूचना:- न्यू प्रबुद्ध भारत कैलेंडर कोर टीम ने वर्ष-2025 के लिए प्रकाशित न्यू प्रबुद्ध भारत कैलेंडर हेतु आर्थिक सहयोग लेना पूर्णतः बंद कर दिया है। हमारी टीम की हमेशा कोशिश रहती है कि तय समय पर बेहतर कार्य करना और गुणवक्ता का ख्याल रखना। अशोक बौद्ध – संपादक न्यू प्रबुद्ध भारत कैलेंडर
बिहार के ‘लेनिन’ बाबू जगदेव प्रसाद जी (02 फ़रवरी, 1922 – 05 सितंबर, 1974) “दस का शासन नब्बे पर, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा। सौ में नब्बे शोषित हैं, नब्बे भाग हमारा है। धन-धरती और राजपाट में, नब्बे भाग हमारा है।” उत्तर भारत में सामाजिक क्रान्ति’ के जनक, अर्जक संस्कृति और साहित्य के प्रबल पैरोकार, मंडल कमीशन के प्रेरणास्रोत, बहुजनों-पिछङों के महानायक भारत के लेनिन बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा जी बहुजनों में एक ऐसी नींव डाल गये हैं, जिस पर इस देश के बहुजन लगातार सामाजिक-आर्थिक-राजनीति और सांस्कृतिक पथ पर गतिमान हैं। बाबू जगदेव प्रसाद जी का जन्म 02 फरवरी, 1922 को तथागत बुद्ध के ज्ञानस्थल बोध गया के समीप कुर्था प्रखंड के कुरहारी ग्राम में अत्यंत निर्धन परिवार में हुआ था। आपके पिता प्रयाग नारायण कुशवाहा जी पास के प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे तथा माता रासकली जी बिना पढ़ी-लिखी महिला थीं। पिता के मार्गदर्शन में जगदेव प्रसाद जी ने मिडिल की परीक्षा पासकर उच्च शिक्षा ग्रहण करने की इच्छा से हाईस्कूल के लिए जहानाबाद चले गए। निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से होने के कारण बाबू जगदेव प्रसाद जी की प्रवृत्ति शुरू से ही संघर्षशील तथा जुझारू रही। वह बचपन से ही ‘विद्रोही स्वभाव’ के थे। जगदेव प्रसाद जी जब किशोरावस्था में अच्छे कपडे पहनकर स्कूल जाते तो गैर-पिछङे छात्र उनका उपहास उड़ाते। एक दिन गुस्से में आकर उन्होंने उनकी पिटाई कर दी और उनकी आँखों में धूल डाल दी, इसके लिए उनके पिताजी को जुर्माना भरना पड़ा और माफ़ी भी मांगनी पडी और उनके साथ स्कूल में बदसूलकी भी हुई। एक दिन बिना किसी गलती के एक शिक्षक ने जगदेव बाबू को चांटा मार दिया, कुछ दिनों बाद वही शिक्षक कक्षा में पढ़ाते-पढाते खर्रांटे भरने लगे, इस बार जगदेव जी ने उनके गाल पर एक जोरदार चांटा मारा। शिक्षक ने प्रधानाचार्य से शिकायत की। जगदेव बाबू ने निडर भाव से कहा, ‘गलती के लिए सबको बराबर सजा मिलनी चाहिए, चाहे वह छात्र हो या शिक्षक’। उस समय उस इलाके में किसानों की जमीन की फसल का पांच कट्ठा जमींदारों के हाथियों को चारा देने की एक प्रथा सी बन गयी थी। गरीब तथा शोषित वर्ग का किसान जमींदार की इस जबरदस्ती का विरोध नहीं कर पाता था। जगदेव बाबू ने इसका विरोध करने को ठाना। जगदेव बाबू ने अपने साथियों के साथ मिलकर रणनीति बनायी और जब महावत हाथी को लेकर फसल चराने आया, तो पहले उसे मना किया, पर जब महावत नहीं माना तब जगदेव बाबू ने अपने साथियों के साथ महावत की पिटाई कर दी और आगे से न आने की चेतावनी भी दी। इस घटना के बाद से उस इलाके में यह “पंचकठिया प्रथा” बंद हो गयी। जब वह शिक्षा हेतु घर से बाहर रह रहे थे, उनके पिता अस्वस्थ रहने लगे। जगदेव बाबू की माँ धार्मिक स्वभाव की थीं, अपने पति की सेहत के लिए उन्होंने खूब पूजा, अर्चना की तथा मन्नते मांगी, इन सबके बावजूद उनके पिता का देहावसान हो गया। यहीं से जगदेव बाबू के मन में अंधविश्वास के प्रति विद्रोही भावना पैदा हो गयी और उन्होंने घर के सारे देवी-देवताओं की तस्वीरों को उठाकर पिताजी की अर्थी पर हमेशा के लिए डाल दिया। इस तरह उनके मन में आडम्बरों के लिए जो विक्षोभ उत्पन्न हुआ वह अंत समय तक रहा, उन्होंने कर्मकांडवाद का प्रतिकार मानववाद के सिद्धांत के जरिये किया। जगदेव बाबू ने तमाम घरेलू परेशानियों के बीच उच्च शिक्षा हासिल की। पटना विश्वविद्यालय से स्नातक तथा परास्नातक उत्तीर्ण हुए। वही उनका परिचय चंद्रदेव प्रसाद वर्मा जी से हुआ, चंद्रदेव वर्मा जी ने जगदेव बाबू को विभिन्न विचारकों को पढने, जानने-सुनने के लिए प्रेरित किया, अब जगदेव बाबू ने सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में भी भाग लेना शुरू कर दिया और वह राजनीति की तरफ प्रेरित हुए। इसी बीच वह ‘जनता’ पत्र का संपादन भी किया। एक संजीदा पत्रकार की हैसियत से उन्होंने दलितों-पिछड़ों-शोषितों की समस्याओं के बारे में खूब लिखा तथा उनके समाधान के बारे में अपनी कलम चलायी। वर्ष 1955 में वह हैदराबाद जाकर अंग्रेजी साप्ताहिक ‘सिटीजन’ तथा हिन्दी साप्ताहिक ‘उदय’ का संपादन भी आरभ किया। उनके क्रांतिकारी तथा ओजस्वी विचारों से पत्र-पत्रिकाओं के पाठकों की संख्या लाखों में पहुँच गयी। इस बीच उन्हें धमकियों का भी सामना करना पड़ा और प्रकाशक से मन-मुटाव भी हुआ, लेकिन जगदेव बाबू ने अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया और वह संपादक पद से त्याग-पत्र देकर पटना वापस लौट आये। बिहार में उस समय समाजवादी आन्दोलन की बयार थी। बिहार में जगदेव बाबू तथा जननायक कर्पूरी ठाकुर जी की सूझ-बूझ से कई सामाजिक व राजनीतिक परिवर्तन हुए। बिहार में राजनीति को जनवादी बनाने के लिए उन्होंने सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति की आवश्यकता महसूस की। वह मानववादी महामना रामस्वरूप वर्मा जी द्वारा स्थापित ‘अर्जक संघ’ (स्थापना 01 जून, 1968) में शामिल हुए। जगदेव बाबू ने कहा था कि अर्जक संघ के सिद्धांतो के द्वारा ही जातिवाद और कर्मकांडवाद को खत्म किया जा सकता है और सांस्कृतिक परिवर्तन कर मानववाद स्थापित किया जा सकता है। उन्होंने आचार, विचार, व्यवहार और संस्कार को अर्जक विधि से मनाने पर बल दिया। वह नए-नए तथा जनवादी नारे गढ़ने में निपुण थे। सभाओं में जगदेव बाबू के भाषण बहुत ही प्रभावशाली होते थे, जहानाबाद की एक जनसभा में उन्होंने नारा दिया- “दस का शासन नब्बे पर, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा। सौ में नब्बे शोषित हैं, नब्बे भाग हमारा है। धन-धरती और राजपाट में, नब्बे भाग हमारा है।” भारत के लेनिन बाबू जगदेव प्रसाद जी कहते थे कि- “पहली पीड़ी के लोग मारे जाएंगे, दूसरी पीड़ी के जेल जायेंगे, तीसरी पीढ़ी के लोग राज करेंगे।” जगदेव बाबू ने अपने भाषणों से बहुजन समाज में नवचेतना का संचार किया, उन्होंने राजनीतिक विचारक टी. एच. ग्रीन के इस कथन को चरितार्थ कर दिखाया कि चेतना से स्वतंत्रता का उदय होता है, स्वतंत्रता मिलने पर अधिकार की मांग उठती है और राज्य को मजबूर किया जाता है कि वह उचित अधिकारों को प्रदान करे। अब बिहार की जनता इन्हें ‘बिहार के लेनिन’ के नाम से जानने लगी थी। बाबू जगदेव प्रसाद एक ऐसा नाम था जिसने 60 और 70 के दशक में पूरे बिहार को हिला कर रख दिया था, जिनका ज़मीनी नारा था- बहुजनों पर अल्पजनों का शासन नहीं चलेगा। इसी समय बिहार में तत्कालीन सरकार के खिलाफ आन्दोलन शुरू हुआ और राजनीति की एक नयी दिशा-दशा का सूत्रपात हुआ, लेकिन आन्दोलन का नेतृत्व गैर पिछङों के हाथ में था, जगदेव बाबू ने आन्दोलन के इस स्वरुप को स्वीकृति नहीं दी। इससे दो कदम आगे बढ़कर वह इसे जन-आन्दोलन का रूप देने के लिए मई, 1974 को 6 सूत्री मांगो को लेकर पूरे बिहार में जन सभाएं की तथा तत्कालीन सरकार पर भी दबाव डाला, किन्तु इसका कोई असर नहीं पड़ा, जिससे फलस्वरूप 05 सितम्बर, 1974 से राज्य-व्यापी सत्याग्रह शुरू करने की योजना बनी। 05 सितम्बर 1974 को जगदेव बाबू हजारों की संख्या में बहुजन समाज का नेतृत्व करते हुए आगे बढ़ने लगे। कुर्था में सत्याग्रहियों को रोका गया, तो जगदेव बाबू ने इसका प्रतिवाद किया और जगदेव बाबू चट्टान की तरह जमें रहे तथा अपना भाषण जारी रखा, पर वह विरोधियों के पूर्व-नियोजित जाल में फंस गए थे। इसी बीच उनके ऊपर गोली चला दी गई। गोली सीधे उनके गर्दन में जा लगी और वह गिर पड़े। भारी जन-दबाव के बाद उनका शव 06 सितम्बर,1974 को पटना लाया गया, उनकी अंतिम शव-यात्रा में देश के कोने-कोने से लाखो-लाखों लोग पहुंचे थे। आज बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा जी का बहुत कम साहित्य लिखा मिलता है। उनके संपादन में निकलने वाले पत्र-पत्रिकाओं को सहेजा नहीं गया, जिससे जगदेव बाबू का व्यापक व्यक्तित्व जनमानसस के सामने नहीं आ पाया। बहुजनों की आवाज, समाजवाद की जीती-जागती मिसाल, बिहार की राजनीतिक चेतना व सांस्कृतिक बदलाव के वाहक, शोषितों के मसीहा, क्रांतिकारी राजनेता, सामाजिक न्याय के प्रबल पक्षधर, बिहार के लेनिन, महान शहीद बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा जी के शहादत दिवस 05 सितम्बर(1974)पर कृतज्ञतापूर्ण नमन व विनम्र आदरांजलि💐🙏 लेखक; महेश कुमार गौतम, लखनऊ
बहुजन समाज में जन्में संतों, गुरूओं एवं महापुरुषों को समर्पित… #न्यू_प्रबुद्ध_भारत_कैलेंडर_2025 के लिए विज्ञापन बुकिंग शुरू हो चुकी है, आप अपने प्रतिष्ठान, संस्थान, संगठन के विज्ञापन देकर बहुजन महापुरूषों व उनकी संविधानवादी विचारधारा को घर-घर तक पहुंचाने में अपनी महती भूमिका निभाएं… आपके इस ग्लोबल न्यू प्रबुद्ध भारत कैलेंडर-2025 को देशभर के समस्त सहयोगियों तक हमारी टीम नि:शुल्क भेजने का समुचित प्रबंध करेगी। आप अपना सहयोग हमारी टीम द्वारा निर्धारित बैंक खाते में ही भेजें और अपना स्क्रीन शॉट व्हाट्सएप या ईमेल करें, जिससे आप तक कैलेंडर भेजने में सहूलियत हो। Account Holder: REKHA DEVI Account Number: 50100400192490 IFSC: HDFC0003002 Branch: MAURANIPUR, JHANSI Account Type: SAVING Google Pay, Phone Pay No. 8700020324 Email ID: info@newprabuddhabharat.com Website: www.newprabuddhbharat.com Facebook 📄: न्यू प्रबुद्ध भारत विशेष आग्रह: आप अपना सहयोग हमारी ईमानदार, मेहनती और जिम्मेदार टीम द्वारा निर्धारित बैंक खाते में ही करें और अपना स्क्रीन शॉट जरूर भेजे। आपका: अशोक बौद्ध टीम, न्यू प्रबुद्ध भारत कैलेंडर ❇️ 9810726588
सभी सम्मानित साथियों को जय भीम, नमो बुद्धाय…💐 आप सभी ने प्रथम संस्करण से ही न्यू प्रबुद्ध भारत कैलेंडर के लिए अपना भरपूर सहयोग दिया है। इसके लिए आप सभी सम्मानित साथी हार्दिक साधुवाद के हकदार हैं। लगभग अगले 20 दिनों में हमारी टीम कैलेंडर की पूरी डिजाइनिंग फाइनल कर देगी। आप सभी से विनम्र निवेदन है कि आप अपना सहयोग व सपोर्ट हमारी टीम को यूं ही बनाए रखें आपके सहयोग व सपोर्ट से हम बेहतर से बेहतरीन संस्करण आपके घरों तक पहुंचाने के लिए संकल्पित हैं। निवेदन है आप सहयोग की इस सम्यक अपील को अपने मित्रों /परिचितों/रिश्तेदारों तक पहुंचाएं व उनसे व्यक्तिगत तौर पर भी कहें। आपके छोटे से सहयोग व सपोर्ट से ही हम न्यू प्रबुद्ध भारत कैलेंडर को बेहतर तरीके से आप तक पहुंचाने में सफल होंगे। आपसे पुनः विनम्र निवेदन है कि इस मुहिम का हिस्सा बनें व अपने सगे संबंधियों को इस मुहिम से जोड़ें। 🙏💐🙏💐🙏💐🙏💐 आपका भाई:- अशोक बौद्ध (न्यू प्रबुद्ध भारत कैलेंडर-2025) 📱9810726588
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पाखंडवाद पर जोरदार चोट के लिए, अंधविश्वास से विज्ञानवाद के लिए व संवैधानिक विचारधारा को मजबूती देने की मुहिम में हमारी पत्नि माया अशोक बौद्ध ने न्यू प्रबुद्ध भारत कैलेंडर-2025 के प्रकाशन में अपनी तरफ से ₹2500 का आर्थिक सहयोग दिया है। पूरी टीम की तरफ से साधुवाद.… अशोक बौद्ध संपादक न्यू प्रबुद्ध भारत कैलेंडर
श्रद्धेय प्रदीप कुमार गौतम जी, सरोजनी नगर, लखनऊ को बहुत बहुत कृतज्ञतापूर्ण साधुवाद…🙏💐💐 न्यू प्रबुद्ध भारत कैलेण्डर-2025 के प्रकाशन हेतु आपका सहयोग प्रतिवर्ष बिना कहे प्राप्त होता रहा है, यह आपकी सदाशयता व समाज के प्रति सजगता का प्रबल उदाहरण है। न्यू प्रबुद्ध भारत कैलेंडर 2025 के प्रकाशन के लिए आपने आज ही शुरुआत के दिन ₹500/- का आर्थिक सहयोग भेजा है… बहुजन विचारधारा को न्यू प्रबुद्ध भारत कैलेण्डर 2025 के माध्यम से घर-घर पहुंचाने में, “पे बैक टू सोसाइटी” के रूप में आपका यह सहयोग महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा💐🙏 पूरी टीम की तरफ से बहुत बहुत आभार और साधुवाद…💐🙏🏻💐 आपका नाम सहयोगियों की सूची में प्रकाशित किया जाएगा और आप तक निर्धारित संख्या में कैलेंडर स्पीड पोस्ट/कोरियर/कोर टीम के माध्यम से ससमय उपलब्ध कराये जाएंगे। आपका पुनः आभार और साधुवाद…
न्यू प्रबुद्ध भारत कैलेंडर-2025 के प्रकाशक के लिए आदरणीय विशाल जाटव जी (यूपी पुलिस) ने ₹404/- का आर्थिक सहयोग भेजा है, पूरी टीम की तरफ से बहुत बहुत साधुवाद और आभार.…
आदरणीय डॉ. गौरव प्रकाश जी आगरा को बहुत बहुत कृतज्ञतापूर्ण साधुवाद…🙏💐💐 न्यू प्रबुद्ध भारत कैलेण्डर-2025 के प्रकाशन हेतु आपका सहयोग प्रतिवर्ष बिना कहे प्राप्त होता रहा है, यह आपकी सदाशयता व समाज के प्रति सजगता का प्रबल उदाहरण है। न्यू प्रबुद्ध भारत कैलेंडर- 2025 के प्रकाशन के लिए आपने आज ही शुरुआत के दिन ₹500/- का आर्थिक सहयोग भेजा है… बहुजन विचारधारा को न्यू प्रबुद्ध भारत कैलेण्डर 2025 के माध्यम से घर-घर पहुंचाने में, “पे बैक टू सोसाइटी” के रूप में आपका यह सहयोग महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा💐🙏 पूरी टीम की तरफ से बहुत बहुत आभार और साधुवाद…💐🙏🏻💐 आपका नाम सहयोगियों की सूची में प्रकाशित किया जाएगा और आप तक निर्धारित संख्या में कैलेंडर स्पीड पोस्ट/कोरियर/कोर टीम के माध्यम से ससमय उपलब्ध कराये जाएंगे। आपका पुनः आभार और साधुवाद…
आदरणीय छोटे भाई मयंक बौद्ध जी, आगरा को बहुत बहुत कृतज्ञतापूर्ण साधुवाद…🙏💐💐 न्यू प्रबुद्ध भारत कैलेण्डर-2025 के प्रकाशन हेतु आपका सहयोग प्रतिवर्ष बिना कहे प्राप्त होता रहा है, यह आपकी सदाशयता व समाज के प्रति सजगता का प्रबल उदाहरण है। न्यू प्रबुद्ध भारत कैलेंडर 2025 के प्रकाशन के लिए आपने आज ही शुरुआत के दिन ₹1000/- का आर्थिक सहयोग भेजा है… बहुजन विचारधारा को न्यू प्रबुद्ध भारत कैलेण्डर 2025 के माध्यम से घर-घर पहुंचाने में, “पे बैक टू सोसाइटी” के रूप में आपका यह सहयोग महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा💐🙏 पूरी टीम की तरफ से बहुत बहुत आभार और साधुवाद…💐🙏🏻💐 आपका नाम सहयोगियों की सूची में प्रकाशित किया जाएगा और आप तक निर्धारित संख्या में कैलेंडर स्पीड पोस्ट/कोरियर/कोर टीम के माध्यम से ससमय उपलब्ध कराये जाएंगे। आपका पुनः आभार और साधुवाद…
आदरणीय वीरेंद्र भारती जी, सुल्तानपुर को बहुत बहुत कृतज्ञतापूर्ण साधुवाद…🙏💐💐 न्यू प्रबुद्ध भारत कैलेण्डर-2025 के प्रकाशन हेतु आपका सहयोग प्रतिवर्ष बिना कहे प्राप्त होता रहा है, यह आपकी सदाशयता व समाज के प्रति सजगता का प्रबल उदाहरण है। न्यू प्रबुद्ध भारत कैलेंडर 2025 के प्रकाशन के लिए आपने आज ही शुरुआत के दिन ₹563/- का आर्थिक सहयोग भेजा है… बहुजन विचारधारा को न्यू प्रबुद्ध भारत कैलेण्डर 2025 के माध्यम से घर-घर पहुंचाने में, “पे बैक टू सोसाइटी” के रूप में आपका यह सहयोग महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा💐🙏 पूरी टीम की तरफ से बहुत बहुत आभार और साधुवाद…💐🙏🏻💐 आपका नाम सहयोगियों की सूची में प्रकाशित किया जाएगा और आप तक निर्धारित संख्या में कैलेंडर स्पीड पोस्ट/कोरियर/कोर टीम के माध्यम से ससमय उपलब्ध कराये जाएंगे। आपका पुनः आभार और साधुवाद…