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भारत में बिहार प्रदेश के आधुनिक इतिहास में बौद्ध दर्शन के पुनरुद्धार का श्रेय जिस एक व्यक्तित्व को जाना चाहिए वे हैं भिक्षु जगदीश काश्यप। यह दुर्भाग्य ही है कि इन महान व्यक्तित्व के नाम से ज्यादातर लोग अपरिचित ही हैं। त्रिपिटक व पाली के प्रकाशित ग्रंथों को देवनागरी में रूपांतरित करने का महान प्रयत्न काश्यप जी ने ही किया था। पाली बौद्ध ग्रंथों के देवनागरी रूपांतरण, संपादन, मुद्रण आदि के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया।
उन्होंने आल इंडिया भिक्खु संघ की स्थापना की थी तथा राजगीर में जापान पैगोडा के विकास में योगदान और ह्वेनसॉंग संग्रहालय की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया। नव नालंदा महाविहार, जिसे सामान्य तौर से पालि इंस्टीट्यूट के रूप में जाना जाता है, भिक्षु जगदीश काश्यप के प्रयत्नों का ही प्रतिफल है। आज एक बार फिर नालंदा में विश्व स्तर के विश्वविद्यालय की स्थापना की कोशिश है। यदि यह हुआ तो इसे काश्यप जी के सपनों का साकार होना ही कहेंगे।
भिक्षु जगदीश काश्यप का जन्म रांची में आज ही के दिन 02 मई, 1908 को हुआ था। इनके बचपन का पूरा नाम जगदीश नारायण था। जब वह राहुल सांकृत्यायन से मिले, तो उनकी मेधा से बहुत प्रभावित हुए। काश्यप जी राहुल जी के द्वारा बुद्ध से कुछ-कुछ परिचित हो चुके थे। काश्यप जी बौद्ध धम्म दर्शन और खासकर पाली भाषा के अध्ययन के लिए उत्सुक हुए। उस समय पाली त्रिपिटक के अध्ययन का सबसे बड़ा केंद्र सिरी लंका का विद्यालंकार महाविहार था। काश्यप जी ने विद्यालंकाराधिपति को पत्र लिखा और वहां आने की अनुमति मांगी। उनके वहां जाने का मार्ग प्रशस्त किया राहुल सांकृत्यायन जी ने। राहुल जी ने काश्यप जी को पत्र देकर सिरी लंका विदा किया। सिरी लंका में जगदीश नारायण ने धम्म की प्रव्रज्या ग्रहण कर ली और जगदीश नारायण से जगदीश काश्यप हो गए। कहते हैं जगदीश नारायण ने मां और अन्य पारिवारिक सदस्यों से इस प्रवज्या के लिए अनुमति ली थी। काश्यप जी ने कठिन परिश्रम से जल्दी ही त्रिपिटाकाचार्य में विशेषज्ञता प्राप्त कर ली। पाली भाषा पर अधिकार प्राप्त कर इन्होंने श्रीलंका मे बौद्ध धर्म की स्थिति का अध्ययन किया और संस्कृत में इस विषय पर एक पुस्तक लिखी। वहां के विद्वानों के बीच इनकी काफी प्रतिष्ठा हो चुकी थी। राहुल जी भी इन पर नजर रखे हुए थे। वर्ष 1934 में काश्यप जी जब भारत लौटे तो राहुल जी इन्हें साथ लेकर जापान चले गए। पूरब के अनेक बौद्ध देशों में घूमकर दोनों विद्वानों ने अपना ज्ञान बढ़ाया। इस यात्रा में काश्यप जी ने चीनी भाषा सीख ली और दीघनिकाय का अनुवाद कार्य पूरा लिया। इसके साथ-साथ बौद्धों के ध्यानयोग जिसे विपस्यना कहते हैं, में काश्यप जी ने निपुणता प्राप्त कर ली। उन पर ज्यादा-से-ज्यादा काम करने की धुन सवार थी। जल्दी ही उन्होंने प्रमुख बौद्धग्रंथ मिलिन्दपन्हों का भी हिंदी में अनुवाद कर दिया। भारत लौटने पर काश्यप जी ने सारनाथ को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। उस समय वहां अनेक बौद्ध विद्वान रहते थे। यहीं पर इन्होंने प्रकांड विद्वान धम्मानंद कोसाम्बी से अभिधम्म और विसुद्धिमग्ग जैसे ग्रंथों का अध्ययन किया। उनकी विद्वता की चारों ओर प्रतिष्ठा हो रही थी, किन्तु काश्यप जी को थोथे विद्वान बना रहना स्वीकार नहीं था। बौद्ध धम्म को लेकर एक सांस्कृतिक आंदोलन की बात उनके मन में थी और वह एक सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में काम करना चाहते थे। उनके मन में यह भी था कि उनके अपने बिहार प्रांत में ही बौद्ध धम्म की कोई चर्चा नहीं है। बोधगया का महाविहार भी तब जर्जर हाल में था। लोगों में बुद्ध धम्म का कोई प्रचार नहीं था। यह सब सोचकर काश्यप जी ने वाराणसी से मगध क्षेत्र में आकर बस गए। अब वह गांव-गांव घूमते। मगही भाषा में लोगों को बुद्ध व उनके विचारों के बारे में बतलाते और कोई न कोई केंद्र अथवा कुटी बनाने का प्रयास करते। इसी बीच वह नालंदा में आकर बस गये। वहां उन्होंने नालंदा कालेज में पाली के अध्ययन की व्यवस्था की। वहां जब कोई शिक्षक न मिला, तो वह स्वयं शिक्षक बन गए। इसी बीच तत्कालीन शिक्षा सचिव जगदीशचंद्र माथुर से मिलकर उन्हें नालंदा में एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर का पाली अध्ययन संस्थान खोलने के लिए राजी कर लिया। इसके बाद वह स्वयं नालंदा में आकर संभावनाओं की तलाश करने लगे। सैकड़ों लोगों से इन्होंने मुलाकात की। वह भी ऐसे कार्य के लिए जिसे लोग अभी जानते तक नहीं थे कि पाली और त्रिपिटक क्या चीज है। इसी क्रम में वे इस्लामपुर के मुस्लिम जमींदार से भी मिले और उनसे कहा कि आपके पूर्वजों ने भी कभी नालंदा को जलाया था, मैं आपसे उसे फिर से बसाने के लिए दान मांगने आया हूं। वह मुस्लिम जमींदार काश्यप जी से बहुत प्रभावित हुए और तुरंत ग्यारह एकड़ जमीन पाली संस्थान के लिए काश्यप जी को दान में दे दिया। इसी जमीन पर दिनांक 20 नवंबर, 1951 को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद जी ने नव नालंदा विहार की आधारशिला रखी थी। नव नालंदा महाविहार काश्यप जी की ही देन है। इसे खड़ा कर उन्होंने एक बार फिर बिहार में बौद्ध धम्म के अध्ययन-अध्यापन की शुरुआत कर दी थी। आज यह संस्थान उनकी कीर्ति के रूप में खड़ा है और बार-बार हमें उस प्राचीन विश्वविश्रुत नालंदा विश्वविद्यालय की याद दिलाता है। उस महाविहार की स्थापना के बाद काश्यप जी का ध्यान लुप्त पाली वांड्मय की ओर गया। संपूर्ण पाली वांड्मय कई विदेशी लिपियों में तो था, किंतु अभी तक नागरी लिपि में था ही नहीं। पाली टेक्स्ट सोसाइटी लंदन ने सिंहली से रोमन लिपि में पाली वांड्मय का अनुवाद कराया था। इस अनुवाद से नागरी लिपि में अनुवाद करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। जगदीश काश्यप जी ने इस महत्वपूर्ण कार्य को पूरा करके दिखाया। संपूर्ण पालि वांड्मय आज इकतालीस खंडों में नागरी लिपि में उपलब्ध है। राज्य और केन्द्र सरकार से निवेदन कर इसके प्रकाशन की भी व्यवस्था काश्यप जी ने करायी थी। यह एक ऐसा कार्य है, जिसके लिए उन्हें बौद्ध जगत में सदैव याद रखा जाएगा। काश्यप जी का नाम राहुल सांकृत्यायन और भदंत आनंद कौशल्यायन के साथ आधुनिक भारत में बौद्ध धम्म के उन्नायकों में लिया जाता है। तीनों बौद्ध विद्वान मिलकर एक त्रयी बनाते हैं। इन तीनों ने मिलकर महान बौद्ध भिक्खु अनागरिक धम्मपाल जी के मिशन को पूरा किया। आधुनिक काल में भिक्षु-त्रयों में से एक जगदीश कश्यप का योगदान अतुलनीय रहा है। बौद्ध धम्म को उसकी जड़ों तक पुनर्स्थापित कराने और बिहार के लोगों को इस स्थान के प्राचीन गौरव से पुनः परिचित कराने में भिक्खु जगदीश कश्यप के योगदान का कोई सानी नहीं है। उनके द्वारा नालन्दा के पुरावशेषों महाविहार की स्थापना का कार्य आज बौद्ध शिक्षा का एक प्रमुख केन्द्र बनकर उभरा है। आज फिर देश और बिहार प्रदेश में बौद्ध धम्म की चर्चा है। इस चर्चा के बीच भिक्खु जगदीश काश्यप जी का स्मरण तालाब के जलतंरगों के बीच शुभ्रकमल की तरह खिलता प्रतीत होता है। आने वाले समय में जब बिहार प्रदेश और प्रबुद्ध होगा तब काश्यप जी के महत्व को हम और गंभीरता से समझ सकेंगे। मधुमेह से पीड़ित होने के कारण, वह वर्ष 1974 में गंभीर रूप से बीमार हो गए और अपने अंतिम दो वर्ष बिहार में राजगीर के जापानी मंदिर में बिस्तर पर बिताए , जहां से वह गिद्ध-शिखर और नवनिर्मित पीस-पैगोडा देख सकते थे। दिनांक 28 जनवरी, 1976 को राजगृह में ही भिक्खु काश्यप जी का निधन हो गया। नालंदा में ही उनकी अंत्येष्टि हुई थी। आज नव नालंदा महाविहार के प्रांगण में उनकी स्फटिक प्रतिमा लगी है। कभी मगध के ही एक भिक्खु शीलभद्र ने नालंदा की कीर्ति में चार चांद लगाया था। मगध के इस आधुनिक भिक्खु ने भिक्खु महाकश्यप और शीलभद्र की परंपरा को इस जमाने तक खींच लाने में अहम योगदान दिया था।
आधुनिक इतिहास में बौद्ध दर्शन के पुनरुद्धारक रहे महा विद्वान भिक्खु जगदीश काश्यप जी के जन्म दिवस 02 मई पर उन्हें कृतज्ञतापूर्ण नमन💐🙏
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